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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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गीता का प्रारंभ कैसी विचित्र परिस्थिति में होता है ! गांडीवधारी अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को सारथी बनाकर कौरवों से लड़ने के लिए आता है। मैं लडूँगा नहीं ऐसा कहकर बैठ जाता है। उसको लड़ने के लिए पुनः तैयार करने का विकट कार्य भगवान के जिम्में आता है। उस कार्य की शुरुआत करते करते बीच में अनेक प्रकार के दूसरे प्रश्नों की चर्चा होती है। यह सच है कि अर्जुन लड़ने के लिए आया था, लेकिन भगवान उसे बिलकुल नये योद्धाओं के साथ लड़ने के लिए कहते हैं। काम एवं क्रोध के महा बलवान शत्रु मनुष्य के अंदर हैं। बुद्धि, मन व इन्द्रियां उनके आश्रय स्थान हैं। इन स्थानों में वे डेरा डालकर बैठे हैं। उन योद्धाओं की ताक़त के बारे में गाफिल मत रहना, ऐसा भगवान हमको सिखाते है। अर्जुन को भी यही संदेश देते हैं। बाहर के सैनिकों और पहलवानों के साथ लड़ना आसान है पर भीतर के योद्धाओं का सामना करना कठिन है। उनका सामना करने के लिए अधिक वीरता की आवश्यकता है। उसके लिए अधिक मर्दानगी की जरूरत है। धरती को कंपानेवाले वीर एवं स्थूल साम्राज्यों को जीतने के लिए जंग करनेवाले जवामर्द भी इन अंदर के शत्रुओं को जीतने में असफल रह जाते है। सीज़र और सिकंदर प्रभृति अनेक वीर हो गए हैं। वे अनेक शत्रुओं को जीतने और अपने साम्राज्य को बढ़ाने में सफल हुए किन्तु काम एवं क्रोध आदि शत्रुओं के सामने मजबूर हो गए। परायी प्रजा को गुलाम बनानेवाले वे वीर पुरुष अपनी गुलामी से मुक्ति न पा सके। वे खुद अपने ही बंदी बन गए। ऐसी गुलामी किस काम की? आदमी दूसरों पर शासन करने की शक्ति तो हासिल कर ले लेकिन खुद अपने पर शासन न कर सके, तो क्या लाभ? सारे विश्व को विजित करे किन्तु अपने को विजय न करे तो ऐसी केवल बाहरी विजय से कौनसा हेतु सिद्ध होता है? ऐसी विजय क्या उनकी मानवता के मूल्य की वृद्धि में सहायक हो सकती है? और उससे उनको शक्ति कितनी और कहाँ तक मिलेगी? जिसने ‘स्व’ पर विजय प्राप्त की है उसने सब पर विजय प्राप्त की है। वह सबसे बड़ा विजयी हो गया यह निश्चय तौर पर मान लेना।

सच्चा युद्ध बाहर नहीं अपितु मनुष्य के भीतर चलता है। सच्चे शत्रु भी अंदर ही हैं। इस अंदर के युद्ध में विजयी होने का सबका इरादा होना चाहिए। तभी जीवन सफल हो सकता है और तभी सच्ची महत्ता भी मिलेगी। यह बात अर्जुन के लिए एवं उसके द्वारा संसार के लिए उपयोगी है। अर्जुन को केवल बाहरी शत्रुओं से लड़ने के लिए कहा जाय तो वह एक महान योद्धा बन जाय और शायद सीज़र व सिकंदर के समान विजेता हो जाय, किन्तु सच्चा मानव तो कदापि नहीं हो सकता। भगवान को यह पसंद नहीं था। यह भी उनको मंजूर नहीं था कि अर्जुन सिर्फ बलवान और जंगली बनकर जीवन यापन करे। वे तो अपेक्षा रखते थे कि अर्जुन महामानव बने। यंत्रवत जीने की अपेक्षा विवेकयुक्त कर्मयोगी होकर जिए। इसलिए ही उन्होंने अर्जुन को अंदर के नये शत्रु का परिचय करवाया। वे चाहते थे कि अर्जुन लड़े, किन्तु आँखें मूंदकर लड़े वह उनको पसंद नहीं था। उनकी इच्छा थी कि वह एक कर्मयोगी की भांति चतुराई या कुशलता से लड़े। अतः उन्होंने तदनुकूल तैयारियां करने की आज्ञा दी।

यह आज्ञा हरेक मनुष्य के लिए, हरेक स्थल और काल के लिए उपयोगी है। जीवन को उज्जवल बनाने के लिए चतुराई हासिल करना आवश्यक है। काम एवं क्रोध को जीतना चाहिए। अहंकार एवं ममता, राग एवं द्वेष – सबको नष्ट करना चाहिए। किसी भी काम को ईमानदारी एवं सावधानी और दृढ़ता से करना चाहिए। ऐसा करने से आदमी कर्मयोगी बन जाता है और छोटे से छोटा काम भी उसके लिए मंगल और उन्नति का साधन बन जाता है। हम ऋषिकेश में रहते थे। वहां माताजी ने एक सिख दरज़ी को अपना ब्लाउस सीने को दिया। दरज़ी वृद्ध था। माताजी का उससे परिचय था। अतः उनको विश्वास था कि वह अच्छी सिलाई करेगा। कुछ दिनों के बाद माताजी चोली लेने गईं। चोली तैयार तो थी, पर ठीक नहीं सिली थी। उतावली एवं लापरवाही से उसने चोली सी थी। माताजी ने उलाहना दिया और लापरवाही का कारण पूछा। अपनी भूल स्वीकार करने के बजाय उसने कहा कि आप तो महात्माजी के साथ रहती है। आप को अच्छा और बुरा क्या? आपको तो कैसा भी चल सकता है। देखा इस उत्तर को ! यह जवाब दरज़ी जैसे कई लोगों के मानस को प्रकट करता है।

उनको अच्छी चीज़ों की आवश्यकता ही क्या है? ऐसे लोग साधु महात्मा को गंदे या गंदगी के उपासक मानते हैं। किन्तु उनकी मान्यता बिलकुल ग़लत है। ईश्वर तो पवित्रता का प्रतिक है। उसकी शरण लेनेवाले तथा उसकी पूजा करनेवाले पवित्र ही होते हैं और पवित्रता का ही आग्रह रखते हैं। उनको गंदगी – चाहे बाहरी या आंतरिक या किसी भी तरह की हो – पसंद ही कैसे आए? ईश्वर की दुनिया निश्चित नियमों के आधार पर व्यवस्थित रूप से चलती है। उस दुनिया के महापुरुषों को गड़बड़, लापरवाही या अव्यवस्था कैसे पसंद आए? किन्तु कुछ लोगों के सिर पर विचारों का भूत सवार हो गया है। वह किसी तरह भी उतरता नहीं। साधु महात्मा के लिए मकान या कुटिया बनाने को कहेंगे और पूरा अच्छा सामान देंगे फिर भी बनानेवाले कारीगर मकान को अधिक से अधिक विकृत और अजायब घर के समान ही बनाएंगे। खिड़की और दरवाजे पुराने एवं वक्र रखेंगे और दीवारें भी टेढ़ी बनाएंगे। पूछेंगे तो सीख देंगे कि साधु महात्मा को मकान का मोह कैसा? उनको तो यही शोभा देगा जैसा हो उससे वे निपट लेंगे। कुछ साधु महात्मा भी ऐसा ही मानते हैं। किन्तु, यह ग़लत है। संतपरुष ‘सत्यं शिवं सुन्दरम’ के उपासक होते हैं, पवित्रता के पक्षपाती और नियम तथा सुव्यवस्था के समर्थक। जिस समय जो कुछ भी मिले उससे वे काम चला लेंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे प्रमाद, लापरवाही या अव्यवस्था के परिपोषक हैं। मामूली आदमी को भी हर काम निपुणता से करना है। अधिक से अधिक सुंदर, जानदार एवं दिलचस्प बनाना है। कर्म की कुशलता का यह सिद्धांत कर्मयोग में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। भगवान अर्जुन को न सिर्फ कर्मठ बनाना चाहते है बल्कि कर्मयोगी भी बनाना चाहते हैं। अतः पिछले अध्यायों में और बातों के साथ वे इस ओर भी अर्जुन का ध्यान खींचते हैं।

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)

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