गीता को ध्यान से पढ़िये तो पता चलेगा कि भगवान ने कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को उत्तम बताया है। भगवान की वाणी को स्वरबद्ध करनेवाले महर्षि व्यास भावों एवं शब्दों के शिल्पी थे। उनकी कुशल शब्द रचना को ध्यान से देखिए । क्या संन्यास एवं कर्म संन्यास भिन्न हैं? हां, इसमें संदेह नहीं। संन्यास का मतलब है त्याग। आदमी घर का, धन का एवं लौकिक व्यवहार का त्याग करता है। त्याग का प्रयोजन है परमात्मा की प्राप्ति। अपना सब ध्यान परमात्मा में केन्द्रित करके परम शान्ति एवं पूर्णता प्राप्त करने के लिए त्याग आवश्यक है। वह निवृत्ति रखता है, फिर भी कर्म तो करता ही है, चाहे वह कर्म ज्ञानप्राप्ति, या योगसाधन या लोकसेवा का क्यों न हों? कर्म का स्वरुप बदल जाता है पर जब तक वह साधक है कर्म तो करता ही है। अर्थात अनेक वस्तुओं को छोड़कर संन्यासी हो जाने पर भी वह कर्म का संन्यास नहीं लेता। कर्म तो वह करता ही रहता है। परन्तु सब लोग ऐसा थोड़े ही करते हैं। कुछ लोग कर्म का संन्यास भी लेते हैं। उनके जीवन को कोई विशेष ध्येय नहीं प्रेरित करता और न वे किसी उद्देश्य के लिए प्रयत्न करते हैं। संन्यासी या त्यागी होकर वे इच्छानुसार इधर उधर घूमा करते हैं और भिक्षा मांगकर पेट भरते हैं। किंतु पेट तो जानवर भी भर लेते हैं। त्यागी अगर पेट भरकर ही बैठा रहे तो उसके त्याग का क्या मूल्य है? भिक्षा लेकर उसे तप करना चाहिए और ज्ञान तथा पूर्णता को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। त्याग करके त्याग के आदर्श को चरितार्थ करना चाहिए। प्रमादी या जड़ बन जाने से वह कैसे किया जा सकता है? आजकल कितने त्यागी लोग बेकार बैठे रहते हैं। अपना या दूसरे का भला नहीं करते, बल्कि भोली और धर्मान्ध जनता की श्रद्धा का दुरूपयोग करके ऐश करते हैं और कोई कोई तो विविध प्रकार के प्रपंच एवं चोरी जैसे अनीति के कार्य भी करते हैं। यह लोग तो कर्म संन्यासी हैं, जिन्होंने अपने विकास के कर्मों को छोड़ दिया है। किसी अन्नक्षेत्र में जाकर देखिए तो मालूम होगा कि वहां किसी भी प्रकार के परिश्रम में विश्वास न रखनेवाले लोग ही अधिक संख्या में मिलते हैं। यह सब कर्म संन्यासी हैं। दूसरों के लिए वे बोज हैं ऐसा न कहें के समान नहीं हैं। इस विशाल देशमें कर्म संन्यासियों की संख्या थोड़ी नहीं है। ‘खाना, पीना, फिरना और मौज करना’ तथा ‘गांजा पीना और दम लगाना’ की फिलासफ़ी को मानने वाले त्यागी इस देश में बहुत हैं। ऐसे फिलासफरों का जीवन मिथ्या है। वे त्याग का मर्म नहीं जानते, त्याग़ को शोभा नहीं देते और त्याग से जीवन को उज्जवल नहीं बना सकते।
ऐसे तथाकथित त्यागीयों की अपेक्षा संसार में रहकर कर्म करनेवाले पुरुष बेहतर हैं। भले ही वे आत्मिक उन्नति की ओर कम ध्यान दें, फिर भी वे कर्म संन्यासियों से अच्छे हैं। इसीलिए तो भगवान कहते हैं कि संन्यास एवं कर्मयोग, दोनों कल्याणकारी है। कोई उत्तम या अधम नहीं है। लेकिन कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग अच्छा है। ऐसा समज़ लेने पर जूठे विवाद का अंत हो जाता है। इसीलिए तो मैंने कहा हैं कि गीता के बारे में ध्यान से विचार कीजिए। जहां कुछ समज में न आए और शंका उत्पन्न हो वहां शांति रखकर भगवान से प्रार्थना कीजिए। ऐसा करने से आपके दिल में सत्य का आलोक चमक उठेगा, विवेक का दीपक जलेगा और आपको दैवीदृष्टि प्राप्त होगी और आपकी सभी उलज़नें सुलज़ जायगी। भगवान की प्रार्थना करने पर सबकुछ संभव हो जायगा। हम प्रार्थना करके परमात्मा से कहते हैं , “प्रभु, सत्य का परम प्रकाश हृदय में प्रकट करो, जो बोलना हो बोलो, लिखना हो लिखो। इस प्रकार प्रार्थना करने पर प्रभु प्रेरणा देते हैं, जिससे कलम चलती रहती है। अथवा यों कहीए कि प्रभु ही लिखते हैं और बोलते भी हैं। अन्यथा गीता के मर्म को समज़ने वाले हम कौन? और जो स्वल्प शक्ति दिखती भी है, वह भी तो परमात्मा की ही है। फिर अभिमान किस बात का? अपने अंतर व मस्तक को परमात्मा के चरणों में ज़ुक जाने दीजिए तभी पावन होंगे और संगीतमय होंगे।
तब फिर सच्चा त्यागी या संन्यासी किसे कहते हैं? गीता कहती हैं कि जो आदमी स्वजन, स्त्री, संतान, धन आदि का त्याग कर देता है उसको त्यागी या संन्यासी नहीं कह सकते। गीता में जहां जहां भी त्याग की बात आती है वहां काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार एवं ममता ही को त्याग करने की बात आती है। किंतु घरबार एवं स्वजनों को त्याग देने का उपदेश किसी भी जगह नहीं आता। गीता ने तो भीतर ही के त्याग पर जोर दिया है। भीतर का त्याग ही सच्चा त्याग है। इसके बगैर केवल बाहर के त्याग का कोई मूल्य नहीं। बाहर का त्याग जितना भी किया जाता है इसीलिए होता है कि भीतर की अहंता, ममता और आसक्ति को जड़ से निकाल बाहर करे। ज्यों ज्यों भीतर का त्याग सिद्ध होता जाता है, बाहर के त्याग की जरूरत कम होती जाती है।
सब जानते हैं कि दुर्गुणों को छोड़ने का कार्य कितना कठिन है। अहंकार, ममता, जूठे विचार, दुराचार एवं विकारों को छोड़ने का काम भी कम कठिन नहीं है। बड़े बड़े पंडित और पहलवान भी इसमें पीछे रह जाते हैं। जो पुरुष ऐसा कठिन कार्य करने के लिए तत्पर होता है और उसमें सफल होने का पुरुषार्थ करता हैं, वही सच्चा वीर हैं। अपने दुर्गुणों एवं दुष्ट विचारों के त्याग के साथ साथ जो अपने जीवन का परमात्मा के चरणों में उत्सर्ग करता है वही सच्चा त्यागी है, और सच्चा संन्यासी भी वही है। ऐसे पुरुष के पास यदि त्यागी का लेबल या प्रमाणपत्र नहीं है, इसीसे यह नहीं कह सकते कि वह त्यागी नहीं है। जिसने भीतर का त्याग कर लिया है वह हर समय, हर हालत में त्यागी ही है। उसे किसी से बैर या द्वेष नहीं। उसे संसारी सुख की कामना नहीं। वह सबसे सदा स्नेह रखता है। सबका हित चाहता है और करता है। मान अपमान, हार जीत एवं सुख दुःख के द्वंदों से वह विचलित नहीं होता। उसने मन एवं इन्द्रियों को वश में किया है। अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान के आलोक में प्रवेश किया है। ऐसा पुरुष सचमुच ही संन्यासी या त्यागी है चाहे वह कैसा ही कारोबार करता हो या कैसे ही कपड़े पहनता हो। वह सदा वन्दनीय है, इसमें संदेह नहीं।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)