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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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हिमालय की पुराण-प्रसिद्ध देवभूमि में आज भी सिद्ध पुरुष रहतें हैं या युग के प्रभाव से उनका लोप हो गया है ? ऐसा प्रश्न उस भूमि में आने की ईच्छा रखनेवाले जिज्ञासु-जन करते हैं । इस सवाल के पूर्वार्ध का उत्तर यह है कि हिमालय में अनेकों प्रकार के महात्मा हैं । किन्तु सच्चे अर्थ में जिन्हें संतमहात्मा कहा जाये ऐसे शायद ही और सच्चे जिज्ञासुओं को ही मिलते है ।

साधुओं के मुख्यतया तीन प्रकार है ।
१) बिलकुल मामूली भेषधारी साधु, जो एक या दूसरे कारण से घर छोड साधु (बावा) बन गये होते है । उनका जीवन ध्येयहीन होता है । वे कोई साधनात्मक प्रवृति नहीं करते, आत्मिक उन्नति के लिए लापरवाह होते हैं तथा अनेक व्यसनों के शिकार होते हैं । बाह्य दिखावे से ही उन्हें साधु कह सकते है, भीतर से देखा जाये तो उनमें आदर्श मानव के लक्षणों का भी अभाव होता है ।

२) दूसरा वर्ग विद्वान साधुओं का है । ये महापुरुष अध्ययन व अध्यापन में रत रहते है । जीव, जगत एवं ईश्वर के चिंतन में तथा उनकी चर्चा में समय बिताते है । ऐसे साधु जीवन के ध्येय के बारे में जाग्रत एवं सक्रिय होते है । प्रधानतया वे शांकर वेदांत को ही महत्व देते है । इनमें ज्यादातर महापंडित व विचक्षण विचारक भी होते हैं ।

३) तीसरा प्रकार साधक श्रेणी के साधुओं का है । वे अल्प संख्या में हैं । वे सर्वोत्तम आत्मिक विकास में आस्था रखते है, साधनापथ पर आगे ही आगे कदम रखने की यथाशक्ति कोशिश करते है । विवेक एवं वैराग्य की बुनियाद मजबूत बनाकर जप एवं ध्यानयोग की सतत साधना से प्रभु की पूर्ण कृपा के अनुभव के लिए अभ्यास को आगे बढाते है और उनके समागम में आनेवालों को अपने सदुपदेश से आध्यात्मिक जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करते है ।

साधुओं के इसी तीसरे प्रकार से सिद्धों का चौथा प्रकार स्वतः पैदा होता है और साधक कोटि के साधुओं की अपेक्षा उनकी संख्या कम होती है । वे विरले ही होते है । साधना में आनेवाले प्रलोभन एवं बाधाओं को पार कर, सिद्धिओं को गौण समझकर, हिंमत व लगन से आगे बढनेवाले साधक अत्यल्प होते है । ज्यादातर साधक तो मझधार में ही रुक जाते है, किनारे तक नहीं पहुँच पाते । अतः अधिकतर जिज्ञासु जन जिनकी ईच्छा रखते हैं, जिनके दर्शन के लिए तडपते है, ऐसे महात्मा तो हिमालय में भी शायद ही मिलते हैं । इस संबध में तुलसीदासजी के रामचरितमानस से उद्दरण देना अनुचित न होगा : ‘बिन हरिकृपा मिले नहीं संता ।’ अर्थात् हरिकृपा के बिना सच्चे संत नहीं मिलते । फिर भी इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं ।

हिमालय की पुण्यभूमि में आज भी सच्चे जिज्ञासुजनों को सच्चे संतो के दर्शन का लाभ मिलता है । सच्चे दिल से खोजा जाय तो ईश्वरकृपा से संतदर्शन होता है । इस बारे में एक सत्यघटना यहाँ पेश करता हूँ ।

गुजरात के एक सज्जन हरिद्वार होकर ऋषिकेश आए थे । यहाँ का कुदरती सौंदर्य उन्हें भा गया और इसलिए धर्मशाला के एक कमरे में रहकर साधना करने लगे । ऋषिकेश में उस वक्त रहनेवाले प्रतापी पुरुषों का सत्संग उन्होंने किया फिर भी असाधारण सामर्थ्यवान अवधूत को मिलने की इच्छा पूर्ण न हुई । दो साल पूरे हुए फिर भी इच्छा पूरी न होने से श्रद्धा डोलने लगी । उन्होंने सोचा, घोर कलियुग के प्रभाव से सच्चे महापुरुषों का अभाव हो गया है अथवा तो वे जंगल की गुफा में चले गए हैं ।

इस बीच, हर वर्ष की तरह, महाशिवरात्री को ऋषिकेश के निकट स्थित वीरभद्र में बडा उत्सव मनाया जाता था । वहाँ जाने वे पैदल चल निकले किन्तु देढ मील चलने पर वातावरण बदल गया । बादल उमडकर घिर आए और बरसात होने लगी । वे सज्जन उलझन में पड गए, वीरभद्र तो जाना ही चाहिए । एक ओर मुसीबत खडी हुई । वे रास्ता भूल गये । ऐसे घने जंगल में जाए तो जाए कहाँ ?

इतने में देखा कि थोडी दूर वृक्षों के पीछे से धुआँ निकलता था । वृक्षों की घटा के पीछे देखा तो धूनी सुलग रही थी और देह पर भस्म मलकर, केवल कौपीनधारी, एक बडी जटावाले महात्मा पद्मासन लगाकर ध्यान में बैठे थे । अचरज की बात यह थी कि महात्मा के बैठने की जगह और धूनी के ईर्दगिर्द की जगह बिल्कुल भीगी नहीं थी । मुशलधार बारिश थी फिर भी साधु की काया व धूनी सूखी थी । यह देख वह सज्जन दंग रह गये । उन्होंने जटाधारी महात्मा को साष्टांग प्रणाम किया । साधुने मुस्कराते हुए कहा, ‘इस धूनी के करीब आ जाओ, बारिश तुम्हें भीगा नहीं सकेगी । तुम्हें वीरभद्र जाना है पर मेरी इच्छा से तुम रास्ता भूलकर यहाँ आए हो । बिना मेरी इच्छा के कोई मुझे देख नहीं सकता ।’

‘कौन हैं आप ?’

‘अवधूत हूँ मैं और यथेच्छ विचरण कर सकता हूँ । तुम में जो अश्रद्धा फैल गई है उसे दूर करने तथा तुम्हें सहायक होने के लिए मैंने दर्शन दिया है । लो, यह प्रसाद खा लो, इससे तुम्हारी थकान दूर हो जाएगी ।’

अवधूत के दिये फल खाने से उन्हें तृप्ति हुई । अवधूत ने पूछा, ‘हमारे जैसे अवधूत का दर्शन तुम क्यों चाहते थे ?’

‘मुझे दीक्षा लेनी है इसलिए ।’

‘दीक्षा क्यों ? मेरे दर्शन हुए इससे दीक्षा मिल गई । तुम अब आसानी से तरक्की कर सकोगे । मैं जो मंत्र दूँ उसका जाप करते रहना ।’

अवधूत ने मंत्र दिया और आगे कहा, ‘वीरभद्र जाना है न ?’

‘कोई खास ईच्छा अब तो नहीं है ।’

‘फिर भी निकले हो तो जाके आओ, तुम्हें रास्ता मिल जाएगा । मैं जाता हूँ ।’

उस गुजराती सज्जन ने सिर झुकाकर प्रणाम किया तब अवधूत ने उसके सिर पर हाथ रखा । वह हाथ इतना शीतल था कि सज्जन आश्चर्यचकित हो गये । जब सिर उठाकर देखा तो अवधूत गायब हो गये थे । सिर्फ धूनी सुलग रही थी, उसके अधिष्ठाता देव वहाँ नहीं थे । उन्होंने धूनी की राख कपडे में बाँध ली और बारिश थम जाने से यात्रा के लिए चल पडे । वीरभद्र का मार्ग स्वतः मिल गया । अवधूत की कृपा से उनकी कायापलट हो गई ।

उसी अनुभव याद कर वे कहते, ‘हिमालय में आज भी समर्थ महापुरुष हैं किंतु वे सहज कुतूहल से नहीं मगर सच्ची जिज्ञासा हो तभी मिलते है । बिना सच्ची भूख या लगन के ऐसे पुरुषों के दर्शन नहीं होते । आज वैसी जिज्ञासा किसे हैं ? जिसे है, उसे मिलते ही है, उसे निराश नहीं होना पडता ।’

- श्री योगेश्वरजी

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