स्वजनों की मृत्यु के विचार से अर्जुन के पैर ढीले हो गए थे । इसलिए भगवान ने अपने उपदेश द्वारा उनके मन से मृत्यु का भय दूर करने का प्रयास शुरू किया । मृत्यु का भय किसे नहीं है ? कोई विरला ही उस भय से मुक्त होगा । संसार में यह भय सर्वत्र व्याप्त है । मृत्यु की कल्पना ही से मनुष्य का हृदय काँप उठता है । किसी का मरना दूसरों को भी पसंद नहीं । मृतक के पीछे लोग शोक करते हैं, रोते हैं और दूसरों को भी रूलाते हैं ।
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें मृत्यु का ख्याल तक नहीं आता । इस किराये के घर को खाली करके सबको किसी न किसी दिन विदा होना है । इस बात का स्मरण भी उन्हें नहीं आता और संसार की किराये की धर्मशाला को अपना मानकर मानव यही समज लेते हैं कि संसार से कदापि विदा नहीं होना है और इसी कारण वे अनेक प्रकार की भली बुरी प्रवृतियों में व्यस्त रहते हैं । संसार को छोड़कर जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता । यह बात जगह-जगह पर दिखाई देती है ।
मृत्यु शैया पर पड़ा हुआ मनुष्य संसार को याद करके रोता है । उसके सामने संसार के मायावी स्वरुप उपस्थित होते हैं । उसकी मति उलज़न में पड़ जाती है, नसें तन जाती है और उसका प्राण किसी भाँति भी शरीर की ममता का त्याग करने को तैयार नहीं होता । एक आदमी के पास अत्यधिक धन था । यकायक उसे कोई रोग हो गया और वह बीमार पड़ा । जब एक मित्र उससे मिलने आया तब उसकी आँखों से आँसू बह निकले । मित्र ने जब रोने का कारण पूछा, तब वह अपने दुःख को व्यक्त करता हुआ बोला – “क्या मुझे भी मरना पड़ेगा ? इस संचित किए हुए धन को छोड़कर क्या मुझे भी स्वर्गलोक सिधारना पडेगा ?”
मित्र ने उत्तर दिया – “इसमें संदेह करने की कोई आवश्यकता नहीं । जिसका जन्म हुआ है उसकी मौत निश्चित है । मृत्यु सबके लिए अनिवार्य है । इस संसार के सफ़र पर आया हुआ जीव इस जीवन की अनोखी गाड़ी में रिटर्न टिकट लेकर ही आता है ।” इस पर भी उस आदमी की चिंता बढ़ती ही गई । मृत्यु का विचार करके वह रो उठता । उसकी नींद उड़ गई, शांति चली गई और चेहरा पीला पड़ गया । उसकी मृत्यु जिस समय पर होनेवाली थी हो ही गई, लेकिन उससे पूर्व का समय व्यर्थ की चिंता और वेदना में बिताया । स्वभावतः मृत्यु के पहले ही उसका जीवन मृतवत् बन गया ।
संसार में ऐसी घटनाएँ हुआ ही करती है । उसका कारण मृत्यु का गलत भय है । गीता की शिक्षा है कि मनुष्य को मृत्यु का भय त्यागना चाहिए । इस भय को दूर करने के लिए उसे क्या करना चाहिए ? सबसे पहले यह समज लेना चाहिए की जन्म और मरण स्वाभाविक हैं । एक सिक्के के दो पहलू जैसे हैं । धुप के साथ छाँव रहती ही है और दिन के साथ रात । उसी तरह जन्म और मरण एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं । इन दोनों की आपस में मित्रता है । एक का आधार लिया तो दूसरे का आधार भी लेना ही पड़ता है । जन्म और मृत्यु शरीर के लिए स्वाभाविक हैं । शरीर के वे स्वाभाविक गुणधर्म हैं । यह बात अगर अच्छी तरह समज ली जाय तो बहुत बड़ा काम हो जाए । जो घटना अवश्यम्भावी है उसका शोक क्या और मोह भी क्या ? मनुष्य चिंता करे या न करे, जन्म और मृत्यु की कल्पना करके, काँपे या न काँपे वह जन्म और मृत्यु के असर में तो आनेवाला ही है । रणक्षेत्र में आया हुआ योद्धा चाहे आनंद से युद्ध करे, चाहे चिंता से, जब वह युद्ध के लिए ही भेजा गया है तो बिना लड़े वह वापिस नहीं जा सकता । फिर युद्ध का विचार करके शोक करने से क्या फ़ायदा ? इसी प्रकार मृत्यु एक स्वाभाविक और टालने से न टलने वाली, शरीर के साथ जुड़ी हुई वस्तु है, तो फिर उससे डरने की क्या आवश्यकता ? उससे भेंट करने के लिए मनुष्य को हमेशा तैयार और प्रसन्नतापूर्वक तैयार रहना चाहिए । उससे डरने में वीरता नहीं, बल्कि कायरता है ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)