संसार के मंगल के लिए इस प्रकार कर्म करने की आवश्यकता है । लोक कल्याण की भावना से कर्म करने की जरूरत है । गीता का ऐसा संदेश है । जिसको पूर्णता अभी प्राप्ति नहीं हुई है वह बिना काम किए कैसे आगे बढ़ सकता है? सब प्रकार के आलस्य का त्याग करके उन्हें कर्मपरायण बनना चाहिए, पुरुषार्थ करना चाहिए । आलसी बनकर नींद लेने से जीवन ध्येय की सिद्धि कैसे होगी? इस संसार में जो भी महान हो गये है वे सतत परिश्रम करने से ही वैसे बन सकें । समय का प्रवाह तेज है, उसका मूल्य महान है । इसको समझकर समय का सदुपयोग करने में सदा तत्पर रहना चाहिए । पल पल का हिसाब रखकर काम करना चाहिए । तभी सिद्धि मिल सकेगी । इसलिए भगवान कहते हैं, ‘‘हे अर्जुन, तू कर्म कर । आज तो तू साधक है किन्तु मुक्त, पूर्ण व सिद्ध हो जाने के बाद भी कर्म को मत छोड़ना । व्यावहारिक जीवन के कर्म करके तू सबका हित कर सकेगा । जीवन के कई प्रवासी तेरा अनुकरण करके जीवन को उज्जवल बना लेंगे । ‘‘
उपदेशक का अपना जीवन यदि उसके उपदेश के अनुसार न हो तो उसका असर कैसा होता है? कुछ लोग सभाओं में तो धर्म एवं नीति का प्रचार करते हैं, किन्तु उनका जीवन अधर्म से भरा हुआ होता है । इसलिए उनका कथन शायद ही प्रभावोत्पादक होता है । बल्कि सच तो यह है कि उनके संपर्क में आनेवालें और उनके भक्त लोग तो उनकी बुराइयों ही को ज्यादा सीख लेते हैं । श्रीकृष्ण भगवान के उपदेश की विशेषता यह है कि उनके जीवन के साथ उसका पूर्णतः तादात्म्य हो जाता है । भगवान खुद पूर्ण पुरुषोत्तम थे । फिर भी निरंतर काम करते रहते थे । जीवन के आखरी समय में वे जंगल में जाकर बैठ सकते थे, लेकिन ऐसा करने के बदले उन्होंने अर्जुन का रथ चलाना स्वीकार किया । यह हमें क्या सिखाता है? यह कि जीवन के द्वारा दूसरों के मंगल के लिए काम करना वह श्रेयस्कर समझते थे और इसीका उपदेश भी उन्होंने दिया । इसीलिए वह उपदेश इतना प्रभावशाली होता है । उनके उपदेश में अलौकिक शक्ति है ।
ज्ञानी और अज्ञानी के कर्म में क्या कोई फर्क रहता है? गीता कहती है कि अज्ञानी अहंभाव से कर्म करता है, लेकिन ज्ञानी बिना अहंभाव के कर्म करता है । अज्ञानी कर्म के फल के लिए लालायित रहता है और उसे प्राप्त करके सुखी या दुःखी होता है । ज्ञानी कर्म¬-फल में समता रखता है, और चाहे सुख आए या दुःख, हानि हो या लाभ, सफलता मिले या असफलता वह अपने पुरुषार्थ में कमी नहीं आने देता । अज्ञानी संसार में लिप्त हो जाता है, पर ज्ञानी संसार में कर्म करता हुआ भी अनासक्त रहता है जैसे जल में कमल । अज्ञानी कर्म के नशे में चूर होकर होश गँवा देता है और कर्म के उद्देश्य को भी भूल जाता है । ज्ञानी पर कर्म की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती । कर्म के नशे से वह पागल नहीं होता । अज्ञानी के कर्म उसको संसार से और भी कसकर ज़कड देते हैं । ज्ञानी के कर्म उसके लिए नयी बेड़िया नहीं गठते बल्कि पुरानी बेड़ियों को भी नष्ट कर देते हैं । जीवन की सिद्धि या ईश्वर प्राप्ति के लिए वह कर्म करता है । उसके सारे कर्मों के पीछे यही ध्येय छीपे रहते हैं । अज्ञानी लौकिक कामनाओं को पूरा करने के लिए कर्म करता है । ज्ञानी ईश्वर प्रीति या ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए कर्म करता है । हमें विवेक को जागृत रखकर अथवा ज्ञानयुक्त कर्म करना चाहिए । साधारण मनुष्य कर्म करता है लेकिन विवेक को छोड़कर । न करने योग्य काम भी ऐसे लोग कर डालते है । फलतः उनको तथा दूसरों को ये कर्म हानिकर होते हैं । मनुष्य को वे मजबूत बंधनो में जकड़ लेते हैं और दुःख देते है । इसलिए गीता कहती है कि विवेकपूर्वक कर्म कीजिए । ज्ञानी भी अज्ञानी की तरह काम करते हैं पर विवेक होने के कारण कर्म उन्हे बांध नहीं सकते ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)